<![CDATA[तकरीबन 28 साल पहले अभी इन्फोसिस को बने महज़ आठ साल ही हुए थे कि उस पर बहुत बड़ा संकट आ खड़ा हुआ. हुआ ये था कि कंपनी के सबसे पहले क्लाइंट डाटा बेसिक कारपोरेशन और उसकी सहयोगी कुर्त सलोमन असोसिएट अलग हो गए थे. घबराहट में इन्फोसिस के संस्थापकों में से एक अशोक अरोरा ने अपने सारे शेयर्स कंपनी को बेचकर उससे अपनी भागीदारी तोड़ दी थी. बाकी के संस्थापक इससे और घबरा गए. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आगे क्या भविष्य होने वाला है. तब नारायण मूर्ति बीच में कूदे और कहा, ‘अगर आप सभी संस्थापक कंपनी छोड़ना चाहते हैं तो बेशक़ चले जाएं. मैं यहीं डटा रहूंगा और इसे आगे लेकर जाऊंगा.’ बाकी फिर इतिहास आप जानते ही हैं. अपनी पत्नी से दस हज़ार रुपये उधार लेकर और अपने घर के एक कमरे में पहला दफ्तर बनाकर इन्फोसिस की स्थापना करने वाले नागवारा रामाराव नारायण मूर्ति आज 71 साल के हो गए हैं और शायद अपने जीवन के सबसे कठिन साल में प्रवेश कर रहे हैं. इन्फोसिस के मैनेजमेंट बोर्ड और नारायण मूर्ति के बीच का टकराव अब अहम मोड़ पर आ गया है. हालांकि दो दिन पहले ही विशाल सिक्का ने उन्हें उनके जन्मदिन का सबसे बड़ा तोहफ़ा देकर खुश किया है लेकिन यही उनकी सबसे बड़ी दिक्कत भी है. 1981 में स्थापित हुई और 1989 और 2011 के संकट से उबरने वाली इन्फोसिस में आज हालात पूरी तरह से बदल चुके हैं. मूर्ति के विश्वासपात्र संस्थापकों में से एक भी अब इस कंपनी में नहीं है. पेशेवर बोर्ड और उसके कुछ फैसलों ने नारायण मूर्ति को उसका सबसे बड़ा विरोधी बना दिया है. विशाल सिक्का के इस्तीफे ने उन्हें मीडिया और निवेशकों की नज़र में भी खलनायक बना दिया है. आपको बताते चलें कि देश की सबसे बड़ी निवेशक कंपनियों में से एक भारतीय जीवन बीमा निगम ने भी इस घटनाक्रम पर चिंता जताई है. उधर अमेरिका ने भी इन्फोसिस के कुछ फैसलों की जांच करने के आदेश दे दिए गए हैं. सॉफ्टवेयर बाज़ार पहले ही कम मार्जिन, ऑटोमेशन, रूपये के मज़बूत होने और डोनाल्ड ट्रम्प की वीसा सम्बंधित नीतियों की वजह से संकट से गुज़र रहा है. ऐसे हालातों में मूर्ति और इन्फोसिस के मैनेजमेंट बोर्ड के टकराव से कंपनी को और भी नुकसान होने की संभावना जताई जा रही है. नारायण मूर्ति और कंपनी के बोर्ड का टकराव फ़रवरी 2015 में शुरू हुआ जब कंपनी के चीफ फाइनेंसियल ऑफिसर राजीव बंसल को यकायक कंपनी से जाने के लिए कह दिया गया और उन्हें सेवेरंस पैकेज( कंपनी से निकले जाने पर दी जाने वाली राशि) के तहत चौबीस महीनों की तनख्वाह दी गयी. मूर्ति जो इस समय मानद चेयरमैन और चीफ मेंटॉर की हैसियत से इन्फोसिस को अपनी सेवाएं और मार्गदर्शन रहे हैं, उन्हें यह बात नागवार गुजरी – कंपनी से निकाले गए किसी व्यक्ति को इतना मोटा हर्ज़ाना क्यों दिया जाए. जब उन्हें इसके पीछे की कहानी मालूम हुई तो वे बोर्ड के ख़िलाफ़ खड़े हो गए. हुआ ये था कि फ़रवरी 2015 के आसपास इन्फोसिस ने इसराइल की पनाया कंपनी का अधिग्रहण किया था. तब कंपनी के मुख्य फाइनेंस अधिकारी राजीव बंसल ने एक मीटिंग में इस अधिग्रहण पर अपने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और मीटिंग से उठकर चले गए. उनके मुताबिक़ उन्हें पनाया खरीद की डील मंहगी और कुछ अटपटी लगी थी. बोर्ड उनके रवैये से नाराज़ हो गया और उनका इस्तीफ़ा मांग लिया. कहा जाता है कि बोर्ड ने राजीव बंसल को अपना मुंह चुप रखने के लिए इतना मोटा हर्ज़ाना दिया था. विशाल सिक्का इस मीटिंग में अध्यक्ष की हैसियत से मौजूद थे. पनाया अधिग्रहण से पहले मई 2014 में विशाल सिक्का को कंपनी ने बतौर मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ एक मोटे पैकेज पर नियुक्त किया था. ये अधिग्रहण उनकी मौजूदगी और ‘हां’ में हुआ है. जब अगले साल उनके पैकेज में लगभग 55 फीसदी की बढ़ोतरी की गयी तो मूर्ति उखड़ गए. मानवीय पूंजीवाद के समर्थक नारायण मूर्ति ने जब कंपनी की स्थापना की थी तब उन्होंने कुछ मानक तय किये थे. उनमे से एक था - सीईओ की तन्ख्वाह और कंपनी में सबसे नीचे के पायदान पर खड़े किसी कर्मचारी की सैलरी का अनुपात 50 से ज्यादा नहीं होना चाहिए. सिक्का के पैकेज में बढ़ोतरी के बाद उनकी सैलरी इस अनुपात को पार कर गई थी. हालांकि, बाद में बोर्ड और खुद विशाल सिक्का ने दलील दी थी कि इसका ज्यादातर हिस्सा कंपनी के वित्तीय प्रदर्शन पर आधारित होगा. इसी साल यानी, 2017 में जब परिणाम कुछ अनुकूल नहीं आये तब बोर्ड ने सिक्का का पैकेज घटा भी दिया पर तब तक देर हो चुकी थी. नारायण मूर्ति ने मैसूर इंजीनियरिंग कॉलेज से इलेक्ट्रिकल में बीटेक करके आईआईटी कानपूर से मास्टर्स डिग्री हासिल की थी. पटनी कंप्यूटर सिस्टम और उसके पहले आईआईएम अहमदाबाद में कुछ साल नौकरी करने के बाद सन 1981 में उन्होंने अपने साथियों - नंदन निलेकनी, अशोक अरोरा, एनएस राघवन, एसडी शिबूलाल और के दिनेश - के साथ मिलकर इन्फोसिस की स्थापना की थी. यहां एक दिलचस्प बात यह भी है कि नारायण मूर्ति इस कंपनी के सबसे पहले नहीं बल्कि चौथे कर्मचारी हैं. उन्होंने बतौर सीईओ इस कंपनी में इक्कीस साल बिताये और बतौर चेयरमेन वे इसमें नौ साल तक रहे. हमेशा से सादगी पसंद जीवन जीने वाले मूर्ति ने इन्फोसिस में भी यही मूल्य स्थापित करने की कोशिशें की हैं. वे ऐसा करने में कुछ हद तक कामयाब भी रहे हैं. कॉर्पोरेट गवर्नेंस के तहत 65 वर्ष की उम्र में नारायण मूर्ति कंपनी के रोज़मर्रा के कामकाज से अलग हो गए. लेकिन इससे पहले ही टर्नओवर के लिहाज़ से इन्फोसिस हिन्दुस्तान में टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज के बाद दूसरी सबसे बड़ी कंपनी बन चुकी थी. बीच में कुछ सालों के लिए जब इन्फोसिस मुश्किल दौर से गुज़र रही थी तब नारायण मूर्ति ने कंपनी में वापसी करते हुए एग्जीक्यूटिव चेयरमेन की हैसियत से काम किया और कंपनी को फिर से सही दिशा दी. इस बार भी हालात कमोबेश कुछ ऐसे ही हैं. पर नारायण मूर्ति को जानने वाले लोग ये मानते हैं कि वे हर मुश्किल को हल करने की महारत रखते हैं.]]>